Patna: फैशन ब्रांड मोहे का विज्ञापन इस वक्त इंटरनेट सेंसेशन बना हुआ है. एक्ट्रेस आलिया भट्ट (Alia Bhatt) दुल्हन के लिबास में दिख रही हैं और सवाल उठा रही हैं कि कन्यादान क्यों? विज्ञापन के अंत में एक टैगलाइन आती है, कन्यादान नहीं, कन्या मान. सनातनी रीति-रिवाजों पर सवाल उठाते इस ऐड के सामने आते ही तरह-तरह की चर्चाएं शुरू हो गई हैं. इस विज्ञापन को जहां कुछ लोग बदलाव की तरह देख रहे हैं, वहीं एक धड़ा ऐसा भी है जिसे लगता है कि हर बार की तरह विज्ञापन कंपनियों को अपना सॉफ्ट टारगेट हिंदू सनातनी परंपरा में ही मिला है. लोगों का कहना है कि बहुत आसान है सनातन पर सवाल उठाओ, फेमस हो जाओ और खूब माल कमाओ.
मिथिलांचल बता रहा है क्या है कन्यादान?
कुल मिलाकर विज्ञापन के जरिए ”कन्यादान” की परंपरा पर सवाल उठाए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि कन्यादान क्यों जरूरी है? वहीं यह भी कहा जा रहा है कि क्या लड़की किसी सामान की तरह है जिसका दान किया जाए. ऐसे सवालों के साथ हिंदू परंपरा को दकियानूस बताने की भी कोशिश की जा रही है. खैर, धन्य है बिहार की धरती जो न सिर्फ इस रस्म-रिवाज को आज तक अपनाए हुए है बल्कि इसके पीछे की वजह क्या थी, इसका भी माकूल जवाब दे रही है. कन्यादान की परंपरा को समझना है तो बिहार के मिथिलांचल में चलिए. यह वही स्थली है, जहां देवी सीता जन्मीं, पली-बढ़ीं और विवाह कर श्रीराम की नगरी अयोध्या पहुंची थीं.
मिथिला में था दान का महत्व
आज मिथिलांचल मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, समस्तीपुर, दरभंगा, सीतामढी, जनकपुरधाम और ऐसे ही कुछ और जिलों का मिला-जुला क्षेत्र है. इनमें भी सीतामढ़ी और जनकपुरी वे स्थल हैं जो सीधे सीता माता से जुड़े हैं. जनकपुरी में ही देवी सीता का विवाह हुआ था और यहां बनाए गए मंडप में राजा जनक ने देवी सीता का कन्यादान किया था. कन्यादान की परंपरा लोकमानस में तकरीबन 7000 साल पुरानी है, जिसका लिखित वर्णन वाल्मीकि रामायण में मिलता है. ऋग्वेद के भाष्य के तौर पर लिखे ब्राह्मण ग्रंथों में शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ सबसे प्राचीन है. इस ग्रंथ में मिथिला की धरती का वर्णन है, जिसे दान योग्य भूमि कहा गया है. यानी बहुत प्राचीन काल में यह मान्यता थी कि मिथिला में जो भी व्यक्ति कुछ भी दान करेगा उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी. मोक्ष यानी कि वह प्रक्रिया, जिससे जीवन-मरण के चक्र से छुटकारा मिल जाता है. बहुत बाद में बाइबिल में भी साल्वेशन (Salvation) की बात लिखी मिलती है, जो इसी तरह त्याग और दान की बात करती है.
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राजा जनक ने क्यों किया देवी सीता का कन्यादान
अब सवाल उठता है कि जनक ने देवी सीता का कन्यादान क्यों किया? इस सवाल का जवाब देवी सीता के जन्म या यूं कहें कि उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है. एक बार अकाल पड़ने पर जब राजा जनक ने खेत में हल चलाया तो देवी सीता की प्राप्ति हुई. यहां ये तथ्य ध्यान देने लायक है. इसे बोल्ड और कैपिटल लेटर में समझिए कि देवी सीता का आम लोगों की तरह जन्म नहीं हुआ वह जमीन के भीतर से मिलीं. अब जमीन के भीतर से तो सिर्फ रत्न ही मिलते हैं. सोना-चांदी, हीरा, माणिक आदि. इसलिए एक कन्या के धरती से मिलने पर उसे कन्या रत्न कहा गया.
श्रीरामचरित मानस में है वर्णन
इसी तरह जब राजा जनक ने देवी सीता का विवाह किया तो बहुत भावुक होकर उन्होंने जो कहा, वह कन्यादान के औचित्य को समझने के लिए काफी है. श्रीरामचरित मानस में तुलसीदास इस पूरे प्रसंग को बड़े ही सजीव तरीके से लिखते हैं.
लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुं दिसि चली॥
बर कुअंरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनंद भरैं॥
हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
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सीता के विवाह में जनक जी ने कहे थे ये शब्द
जनकराज श्री रामजी के चरण कमलों को प्रेम से पखारने लगे. इस दौरान आकाश नगाड़ों की धुन से गूंज उठा. इसके बाद दोनों कुलों के गुरुओं ने वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर मंत्र पढ़े. पाणिग्रहण होता देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनंद में भर गए. इसके बाद जनक जी भावविभोर होकर कहते हैं कि जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वती सौंपी और सागर ने भगवान विष्णु को लक्ष्मीजी दे दी थीं. वैसे ही मैं जनक श्री रामचन्द्र को सीताजी समर्पित कर रहा हूं. इस प्रसंग को ध्यान से समझा जाए तो पहले यहां पाणिग्रहण यानी हाथ थामना इस शब्द का प्रयोग हुआ, लेकिन भावविभोर जनक जी ने इसे कन्या दान कहा, क्योंकि उनके मन में धरती से मिलने वाले कन्या रत्न की बात थी.
वाल्मीकि रामायण में भी कन्यादान की नहीं, पाणिग्रहण की बात है, लेकिन राजा जनक इसे अपना भावना में दान कहते दिखते हैं. वाल्मीकि इसे कुछ ऐसे लिखते हैं,
इयं सीता मम सुता सहधर्मचरी तव।
प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना।।
समुद्र मंथन की कथा से जुड़ा है जिक्र
राजा जनक ने ऐसा कहने के पीछे उदाहरण भी दिया, जिसमें वे बताते हैं कि जैसे सागर ने श्रीहरि विष्णु को कन्यादान किया था, वैसे ही मैं भी कर रहा हूं. अब उनकी इस बात को समझने के लिए एक और पौराणिक घटना समुद्र मंथन का जिक्र भी जरूरी है. दरअसल, समुद्र से 14 रत्न प्राप्त हुए. इसमें से आठवां रत्न लक्ष्मी खुद थीं. समुद्र ने कौस्तुभ मणि के साथ उनका दान विष्णुजी को कर दिया. तब लक्ष्मी-नारायण का दोबारा विवाह हुआ.
कन्यादान की परंपरा नहीं एक भावना
असल में कन्यादान परंपरा के ही साथ एक भावना है. जिसमें सभी पिता अपनी बेटियों को सीता और लक्ष्मी के समान देखते हैं. उन्हें रत्न कहते हैं तो इसके पीछे की मंशा बेटियों को वस्तु समझने की नहीं है, बल्कि उस सम्मान की बात है जो बेटियों को देवी के तौर पर देखता है. हालांकि ये कहने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि बाद के दिनों में बेटियों को पराया धन जैसी संज्ञा भी दी गई, जो सिर्फ एक नासमझी और इतिहास को न जानने की वजह से हुई गलती है. विज्ञापन एजेंसियों की नीयत इसी गलती को सही साबित कर देने जैसी लगती है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जिसका विरोध किया जा रहा है.