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इमरान ख़ान पर हमला क्या बदला लेगी पाकिस्तान की सियासत

शिमला (हिमदेव न्यूज़) 06 नवंबर, 2022 गुरुवार के हमले के बाद पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पहली बार कैमरे के सामने आए और उन्होंने बताया कि उन्हें हमले में चार गोलियां लगी हैं।
इमरान ख़ान ने दावा किया कि देश की अवाम उन्हें सत्ता में देखना चाहती है, लेकिन कुछ लोगों को ये पसंद नहीं। इसीलिए उन्हें मारने की
कोशिश की गई। अल्लाह ने नई ज़िंदगी दी, दोबारा लड़ाई लड़ूंगा’’ इमरान ख़ान ने गुरुवार को उन पर हुए हमले के बाद ये बात कही और पुराने तेवर के साथ ही सरकार से टकराव का सिलसिला जारी रखा है। गुरुवार का हमला
पंजाब के वज़ीराबाद में हुए हमले में इमरान ख़ान के पैर में गोली लगी
और फ़ायरिंग में एक शख़्स की मौत हो गई। इमरान ख़ान ख़तरे से बाहर
हैं और वो फिर से लॉन्ग मार्च की शुरुआत कर सकते हैं। इमरान ख़ान ने इस हमले के लिए प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़, गृहमंत्री
राणा सनाउल्लाह और मेजर जनरल फ़ैसल को ज़िम्मेदार बताया है।
सनाउल्लाह ने अपने ऊपर लगे सभी आरोपों को निराधार कहा है।
इस साल इमरान ख़ान सत्ता से बेदखल होने के बाद पीएमएल (एन) के नेतृत्व में चल रही गठबंधन की सरकार से दो-दो हाथ की स्थिति में हैं। अप्रैल में पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में अविश्वास प्रस्ताव
सफल रहने के बाद प्रधानमंत्री इमरान ख़ान सत्ता से बाहर हो गए थे। विपक्ष का कहना था कि उनकी सरकार आर्थिक मोर्चेपर विफल रही है। जबकि इमरान ख़ान का कहना था कि उन्हें सत्ता से बाहर निकालने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में साज़िश रची गई थी। उन्होंने किसी भी नई
सरकार को स्वीकार करने से इनकार किया था। इसके बाद से इमरान ख़ान लगातार नई सरकार और सेना की मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं। वो अमेरिका परस्ती से लेकर ख़राब आर्थिक हालात के लिए सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं।
इमरान ख़ान बार-बार चुनाव कराने की मांग कर रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान की सरकार का कहना है कि चुनाव अपने मौजूदा समय से ही होंगे। हाल ही में तोशेखाना मामले में ग़लत जानकारी देने को लेकर चुनाव आयोग ने इमरान ख़ान को अगले पांच साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी करार दे दिया था।
दोनों पक्ष पूरा ज़ोर लगा रहे हैं और इमरान ख़ान सत्ता में वापसी की कोशिश में जुटे हैं। इमरान हुए मज़बूत, सरकार दबाव में
ऐसे में इमरान ख़ान पर हुए इस हमले के बाद पाकिस्तान की राजनीति किस करवट बैठेगी इसे लेकर जानकार इमरान ख़ान को ज़्यादा मजबूत स्थिति में पाते हैं।
पाकिस्तान में वरिष्ठ पत्रकार हारुन रशीद कहते हैं, ‘’पाकिस्तान की बदक़िस्मती यही है कि देश की राजनीति पर इन हमलों से कोई असर नहीं पड़ता है। ये कोई पहली दफ़ा नहीं है। इससे पहले बेनज़ीर भुट्टो पर भी हमला हुआ था। बेनज़ीर पर पहली बार कराची में हमला हुआ था जिसमें वो बाल-बाल बची थीं। उसके बाद
वो नहीं बदलीं और जो उनकी नीति से ख़ुश नहीं थे उन्होंने रावलपिंडी में उनकी जान ले ली।’’ इमरान ख़ान पर हुए हमले में संदेश देना था कि वो जिस तरह सभी
को निशाने पर ले रहे हैं, वो नहीं चलेगा। आपको इसकी क़ीमत चुकानी होगी। अब देखना यही है कि इमरान ख़ान आगे की क्या रणनीति तैयार करते हैं। पर लगता नहीं है कि इस हमले से इमरान कमज़ोर होंगे और उनकी नीति बदलेगी।’’ हालांकि, हारून रशीद मानते हैं, ‘’सत्ताधारी दलों पर दबाव है। आलोचनाओं के कारण जनता में उनकी साख कम हुई है। इमरान ख़ान हाल में हुए उपचुनावों में बड़े बहुमत के साथ जीते हैं। लोग इस समय इमरान ख़ान के साथ खड़े हैं। अब देखना है कि
सरकार इमरान ख़ान की चुनाव की मांग को मानती है या नहीं। ये पाकिस्तान की राजनीति में एक अहम मोड़ साबित होगा। ‘’वहीं, सेना के लिए इस समय बहुत बड़ा सवाल है कि क्या वो पाकिस्तान की सियासत में पहले की तरह इंजीनियरिंग और दखल करना चाहेगी या नहीं।
जिस तरह इमरान ख़ान ने उन्हें एक्सपोज़ करने की कोशिश की है और लोगों में उनके ख़िलाफ़ भावनाएं बढ़ाई हैं, अब उनको फ़ैसला करना है। जनरल बाजवा के बाद जो सेना प्रमुख आएंगे उनके लिए ये एक बहुत अहम सवाल होगा जो पाकिस्तान का भविष्य तय करेगा।’’
अप्रैल में अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए उनके सत्ता से हटने के बाद से इमरान ख़ान मुखर रूप से सरकार की आलोचना कर रहे हैं। वो लोगों को इकट्ठा कर रहे हैं और जनता की राय बदलने में कामयाब हुए हैं जिसके पीछे लोग उनकी ‘जगाने वाले’ भाषणों को कारण बता रहे हैं।
उनकी लोकप्रियता पहले ही बढ़ रही थी, लेकिन इस हमले ने उसके स्तर को और बढ़ा दिया है। वो पाकिस्तान की राजनीति में एक बेहद प्रिय नेता बन गए हैं जो यथास्थिति को खुली चुनौती दे रहे हैं।
अब स्थिति इमरान ख़ान बनाम शेष बन गई है। खासतौर पर वो जिस तरह सेना को निशाना बनाते हैं और उस पर पर्दे के पीछे से सरकार चलाने का आरोप लगाते हैं। वो निडर होकर सेना के अधिकारियों प हमले बोलते हैं। ये असाधारण है।
इमरान ख़ान पर हुए हमले ने उनकी सत्ता में वापसी की संभावनाओं को कहीं ज़्यादा बढ़ा दिया है। उनके राजनीतिक और ग़ैर-राजनीतिक विरोधी मुश्किल स्थिति हैं और इमरान ख़ान के समर्थकों का गुस्सा झेल रहे हैं। अब पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) के नेतृत्व वाली सरकार और सेना, चुनाव कराने के अत्यंत दबाव में हैं। इस क़दम से सेना की उस छवि को चोट पहुंचेगी कि उसका सत्ता पर पूरा नियंत्रण है। साथ ही इससे पीएमल-एन गठबंधन की सत्ता में वापसी की संभावनाएं भी कम
हो सकती हैं। ‘लोकतंत्र पर फिर एक चोट’
पर जानकार इस घटना को मौजूदा राजनीति से आगे भी देखते हैं। उनका कहना है कि ये हमला पाकिस्तान में लोकतंत्र की एक और हत्या जैसा है।
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर साउथ एशियन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर संजय के भारद्वाज कहते हैं, ‘’पाकिस्तान की राजनीति में एक बार फिर से लोकतंत्र की और जनता की भावनाओं की हत्या हुई है। ये हमला दिखाता है कि पाकिस्तान की राजनीति में निरंकुश, अधिनायकवादी
प्रवृत्तियां आज भी बनी हुई हैं।
इमरान ख़ान पर हुए हमले की तुलना पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री
बेनज़ीर भुट्टो पर हुए हमले से की जा रही है। पाकिस्तान में राजनीतिक हस्तियों पर हमले का पुराना इतिहास रहा है। 1951 में एक जनसभा के दौरान पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान की गोली मारकर हत्या की गई थी। इसके बाद 27 दिसंबर, 2007 को रावलपिंडी में एक रैली के दौरान फ़ायरिंग और आत्मघाती हमले में बेनज़ीर भुट्टो की हत्या कर दी गई थी। बनेज़ीर भुट्टो उस समय ख़ासी लोकप्रिय थीं। इमरान ख़ान की भी जनता के बीच अच्छी पकड़ बताई जाती है।
पाकिस्तान तीन बार सेना का तख़्तापलट देख चुका है और यहां चुनाव के बावजूद प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाते। यहां तक कि नेताओं को सत्ता से हटने के बाद भी हत्या और सज़ा
का डर सताता रहता है। जैसे तख़्तापलट करने के बाद पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दे दी गई। वहीं, पूर्व राष्ट्रपति और सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ़ भी फांसी के डर के चलते देश छोड़कर
चले गए। संजय के भारद्वाज बताते हैं, ‘’पाकिस्तान की राजनीतिक में लोकतंत्र कभी जड़ नहीं जमा पाया है। जब से पाकिस्तान बना है तब सेना, नौकरशाही और न्यायपालिका का प्रभुत्व रहा है।
ये एक इस्टैब्लिशमेंट की तरह काम करता है। पाकिस्तान में आम चुनाव ही 1970 में हुए थे और उसमें भी बंगाली नेतृत्व को बहुमत मिला जिसे स्वीकार नहीं किया गया। तब से तीन बार तख़्तापलट
हो चुका है। यहां अधिनायकतंत्र की प्रवृत्ति है, जो लोकतंत्र को मज़बूत नहीं होने देती।’’ ‘’सेना के अपने हित हैं, चाहे वो कॉरपोरेट हों या धार्मिक हों या नॉन
स्टेट एक्टर्स के साथ कश्मीर या भारत को लेकर तालमेल हो या फिर अमेरिका के साथ सैन्य सहयोग की बात हो।
अगर कोई नेता इनके ख़िलाफ़ जाता है या उसकी लोकप्रियता इस्टैब्लिशमेंट को चुनौती देती है तो उसे सत्ता से हटा दिया जाता है और उसके उसका राजनीतिक भविष्य ख़त्म करने की कोशिश होती है। ‘’पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर हारून रशीद इसे नेताओं के लिए बड़ी चुनौती मानते हैं। वह कहते हैं, नवाज़ शरीफ़ और इमरान ख़ान दोनों ही अपना कार्यकाल पूरा किए बिना चले गए।
यहां प्रधानमंत्रियों के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि वो गठबंधन के दलों और ताक़तवर सेना को अपने साथ लेकर कैसे चलेंगे। कहीं ना कहीं सरकार के काम में मतभेद आ ही जाता है। फिर सेना और संस्थाएं देखती हैं कि उस प्रधानमंत्री के साथ चलना संभव है या नहीं।’’आंतरिक सुरक्षा पर सवाल पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और एक लोकप्रिय नेता पर हमला ना सिर्फ़ घरेलू मसला है बल्कि इस पर वैश्विक प्रतिक्रियाएं भी आई हैं। वहीं,
इमरान ख़ान की सुरक्षा पर भी सवाल उठाए गए हैं। इमरान ख़ान पर ये हमला ऐसे समय में हुआ है जब प्रधानमंत्री
शहबाज़ शरीफ़ चीन की अपनी पहली यात्रा पर थे। इस दौरान रुके हुए चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को फिर से शुरू करने और पाकिस्तान में निवेश को लेकर बातचीत हुई। लेकिन, पाकिस्तान में चीनी नागरिकों पर हमलों के चलते चीन बार-बार सुरक्षा का मसला उठाता रहा है।
पाकिस्तान इस समय ख़राब आर्थिक हालात से गुज़र रहा है। लोग बेतहाशा महंगाई की मार झेल रहे हैं और डॉलर के मुक़ाबले पाकिस्तानी रुपया गिरकर 221 पर पहुंच गया है। स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान के पास करीब 8।9 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार बचा है जो क़रीब डेढ़ से दो महीनों के लिए ही काफ़ी
होगा। पाकिस्तान हाल ही में एफ़एटीएफ़ की ग्रेलिस्ट से बाहर आया। इस लिस्ट से बाहर आने के लिए उसे आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई का लक्ष्य पूरा करना था। लेकिन, पूर्व प्रधानमंत्री की ही सुरक्षा में अगर सेंध लगती है तो पाकिस्तान में आंतरिक सुरक्षा को लेकर सवाल उठ सकते हैं। हालांकि, जानकार चीन के संदर्भ में इसे बड़ा मसला नहीं मानते हैं।
प्रोफ़ेसर संजय के भारद्वाज कहते हैं कि चीन को पाकिस्तान में लोकतंत्र या अधिनायकवाद से ख़ास मतलब नहीं है। वह बस चाहता है कि उसकी बेल्ट एंड रोड परियोजना पूरी हो और चीनी कर्मियों को सुरक्षा मिले। लेकिन, वह कहते हैं, ‘’पश्चिम के संदर्भ में ये बात कुछ हद तक मायने रखती है। आईएमएफ़ से पाकिस्तान को आर्थिक पैकेज की पहली खेप मिल चुकी है, पर पश्चिमी देश समय और स्थितियों के हिसाब से लोकतंत्र और मानवाधिकार का मुद्दा उठाते रहे हैं।