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festival of lights diwali significance of the day | श्रीराम के संग मां काली, महावीर और पांडवों से जुड़ी दिवाली पर ऐसे सुरक्षित कीजिए भविष्य

दिवाली ऊर्जा और ऊष्मा का त्योहार है. इसकी कई सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताएं हैं. सबसे पहली तो यही कि इस दिन श्रीराम अयोध्या वापस लौटे थे. इसके अलावा, मां दुर्गा ने इसी दिन काली का रूप लिया था. भगवान महावीर को मोक्ष की प्राप्ति इसी दिन हुई थी और पांडव भी दिवाली के दिन ही वनवास से वापस आये थे. 

तमाम महत्वपूर्ण संयोग और परंपराओं को समेटने वाला यह त्यौहार एक सकारात्मक उर्जा उत्पन्न करता है, जिसकी इस कोरोना काल में सबसे ज्यादा जरूरत है. शायद यही वजह है कि दिवाली की जगमग में पिछले सालों के मुकाबले इस बार कोई खास कमी नहीं आनी चाहिए. 

कोरोना ने हमें सीमित संसाधनों में जीना सिखाया
महामारी के बावजूद भी लोगों का यह उत्साह प्रेरित करने वाला त्योहार है. साथ ही यह दर्शाता है कि हम भारतीय संकट के समुंदर में भी आशा की लौ जगाये रखना जानते हैं. हालांकि, संयम और सतर्कता हमें अभी भी बरकरार रखनी होगी. क्योंकि कोरोना कमजोर भले ही हुआ है, खत्म नहीं. कोरोना ने हमें सीमित संसाधनों में जीना सिखाया है. हमें समझ आ गया है कि ‘कम’ का अर्थ ‘अभावग्रस्त’ नहीं होता, बल्कि यह जीवन जीने का सामान्य तरीका है. इसलिए रोशनी के त्यौहार से हमें ऊर्जा के संबंध में भी इस ‘सामान्य तरीके’ को अपनी आदत में शुमार करने पर विचार करना चाहिए. ऊर्जा के अत्यधिक दोहन, उसकी बर्बादी को रोकने का प्रयास करना चाहिए. यह शब्द जितने भारी-भरकम हैं, उन पर अमल उतना ही आसान है. 

ऊर्जा संरक्षण हमारी मज़बूरी नहीं, बल्कि ज़रूरत है
हमें यह समझना होगा कि ऊर्जा संरक्षण हमारी मज़बूरी नहीं, बल्कि ज़रूरत है. भारत जैसे देश में हम बूंद-बूंद से घड़ा भरने वाली कहावत पर चरितार्थ करते हैं. लिहाजा, हमारे द्वारा आज उठाया गया एक छोटा कदम खुशहाल कल की नींव रखेगा. जिस तरह ‘बिन पानी सब सून’ है, ठीक वैसे ही ऊर्जा के बिना कुछ भी संभव नहीं. क्या आप ऊर्जा के बिना जीवन की कल्पना कर सकते हैं? कुछ देर के लिए खुद को एक अंधेरे कमरे में कैद करके देखें, जो छटपटाहट आप महसूस करेंगे, वो ऊर्जा के महत्व एवं ज़रूरत को समझने के लिए काफी है. ऊर्जा चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो, उसका संरक्षण अत्यंत आवश्यक है, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि मौजूदा स्थिति बेहद खराब है.      

व्यक्तिगत रूप से मैं अपनी बात करूँ तो बेवजह जलती लाइट मुझे कष्ट देती है, फिर चाहे वो घर हो या ऑफिस. हालांकि दूसरों के दिए इस कष्ट को मैं लाइट बंद कर अपने मन की शांति सुनिश्चित करता हूं. मेरे जैसे कई लोग होंगे और मैं यह भी जानता हूं कि व्यापक बदलाव लाने के लिए ‘अधिकांश’ लोगों की भीड़ में ‘कई’ पर्याप्त नहीं हैं. फिर भी ‘कई’ प्रयासों को निरंतर अमल में लाये जाते रहना चाहिए, तभी बदलाव की संभावना जीवित रह पाएगी. मैं यही कर रहा हूं और आपसे भी यही अपेक्षा रखता हूं.

युवा पीढ़ी का रवैया भी सकारात्मक नहीं
बेवजह जलती लाइट, चलते पंखे केवल बिजली की बर्बादी ही नहीं दर्शाते बल्कि सीधे तौर पर हमारे सिविक सेंस पर भी सवाल खड़ा करते हैं. आप कहीं भी चले जाइए, पूरे देश में कमोबेश यही स्थिति है. ‘खाली केबिन, जगमगाती लाइट ’ वाले दृश्य तो पहले भी नजर आते थे, लेकिन अब यह आम हो गए हैं और सबसे ज्यादा अफसोस की बात यह है कि देश का भविष्य कही जाने वाली युवा पीढ़ी का रवैया भी सकारात्मक नहीं है. ऑफिस छोड़ने से पहले लोग अपने कंप्यूटर तक बंद करना जरुरी नहीं समझते. मॉनिटर पर घूमता स्क्रीन सेवर उनकी लापरवाही की कहानी लगभग हर रोज बयां करता है.

संवेदनशील मुद्दा संवेदनशून्य बन जाता है
कुछ ऐसे भी हैं, जिनकी बर्बादी रोकने की आदत सिर्फ उनके घर तक ही सीमित रहती है. घर की चारदीवारी से निकलते ही वह ‘बर्बादी’ को आजाद ख्याली समझने लगते हैं. काम खत्म होने पर लाइट, पंखा या फिर कंप्यूटर बंद करना उन्हें अपनी शान के खिलाफ महसूस होता है. ऐसे लोगों को किस श्रेणी में रखा जाए? शायद स्वार्थी! स्वार्थी इस लिहाज से कि घर में बचत की आदत उनकी जेब पर पड़ने वाले भार को कम कर सकती है, इसलिए वह एकदम से ऐसे मुद्दों पर संवेदनशील हो जाते हैं. लेकिन घर के बाहर इस ‘आदत’ से व्यक्तिगत लाभ की कोई गुंजाइश नहीं होती, इसलिए संवेदनशील मुद्दा संवेदनशून्य बन जाता है.

अधिकांश भारतीयों का सिविक सेंस गिरते भूजल की माफिक गिरता जा रहा
वैसे जब बात ऊर्जा से निकलकर सिविक सेंस पर पहुंच गई है, तो थोड़ा इस पर भी बात कर लेते हैं. संभव है कि मेरी बात आपको पसंद न आये, लेकिन हकीकत यही है कि अधिकांश भारतीयों का सिविक सेंस गिरते भूजल की माफिक गिरता जा रहा है. अपने घर का कचरा दूसरों के घर के आगे डालना, पब्लिक टॉयलेट का इस्तेमाल न करना, आस्था के नाम पर नदियों को गंदा करना, नो पार्किंग में गाड़ी लगाना, ट्रैफिक नियमों की धज्जियां उड़ाना और सरकारी संपत्तियों को अपना मानकर लूट के जरिये ‘अपना’ हिस्सा ले जाना, किसी से छिपा नहीं है. नई नवेली ट्रेन में यात्रियों द्वारा की गई लूट की घटना तो आपको याद ही होगी? यदि नहीं, तो ट्रेनों के शौचालयों में जंजीर से बंधे मग अवश्य देखे होंगे. जंजीर की लम्बाई अक्सर चर्चा का विषय रही है, मजाक में ही सही.

देशभक्ति का दीया जलाएं
ये तो महज कुछ उदाहरण हैं. सिविक सेंस पर हमें आइना दिखाने वाले अनगिनत किस्से मौजूद हैं. मैं मानता हूं कि यदि भारतीयों की तुलना यूरोप और जापान के लोगों की सिविक सेंस से की जाए तो यह गलत होगा. क्योंकि भारत की जनसंख्या और उसके लिए मौजूद संसाधन का अनुपात बहुत कम है, लेकिन साफ-सफाई, पानी-बिजली की बर्बादी रोकने जैसी सामान्य आदतें तो हम विकसित कर ही सकते हैं. ऑफिस से जाते समय कप्यूटर या लाइट-पंखे बंद करने में कितना समय लगता है? क्या इसके लिए भारी शारीरिक श्रम की ज़रूरत है, निश्चित तौर पर नहीं, तो फिर इससे परहेज क्यों? इस सवाल का जवाब हमें खोजने की जरूरत है.

आखिरी में बस मैं यही कहना चाहूंगा कि इस दिवाली देशभक्ति का दीया जलाएं, देश हित में ऊर्जा बचाएं.

लेखक: अभिषेक मेहरोत्रा Zee News के Editor (Digital) हैं.

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं.) 

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