Jaipur : अफगानिस्तान से अमेरिका के पांव उखड़ने के बाद से वैश्विक राजनीतिक बेहद तेजी से बदल रही है. फ्रांस और अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे पुराने सहयोगियों के बीच दरार पड़ने लगी है. तो साउथ चाइना सी में ऑस्ट्रेलिया जैसे महत्वपूर्ण प्लेयर के अपने सबसे करीबी न्यूजीलैंड से दूरिया बढ़ने लगी है. रूस और चीन करीब जा रहे है. चीन उभरता हुआ सुपरपावर बन रहा है तो अमेरिका एक सुपर पावर के तौर पर ढलान की ओर है. पाकिस्तान अब करीब करीब अमेरिकी दबाव से निकल कर चीन के चंगुल में फंस चुका है. वो तालिबान (Taliban) की सत्ता को मानने के लिए दुनिया भर में पैरवी कर रहा है. येरुशलम में काउंसलेट खोलने के फैसले ने अमेरिका और इजरायल के रिश्तों में भी खटास डाल दी है. चीन से मुकाबले के लिए क्वाड के समानांतर AUKUS गठबंधन खड़ा हो रहा है. कभी अमेरिका क्वाड के सदस्य देश के रूप में भारत को अलग रखकर AUKUS जैसा सैन्य गठबंधन बनाता है तो कभी अफगानिस्तान (Afghanistan) के मामलों में रूस भी भारत को ट्राइका और ट्राइका प्लस से भारत को बाहर रखता है. ऐसे में आने वाला एक साल वैश्विक राजनीति के लिए महत्वपूर्ण रहने वाला है. ऐसे में भारत के लिए जरूरी है कि वो विदेश नीति के फैसले बेहद संभलकर लें. कहीं ऐसा न हो कि बदलते हालातों के बीच भारत अलग-थलग पड़ जाए।
हाल ही में अमेरिका-ब्रिटेन (US-UK) और ऑस्ट्रेलिया ने मिलकर चीन (China) का मुकाबला करने के लिए AUKUS का गठन किया है. जिसका उद्देश्य ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी संपन्न करने के साथ साथ चीन के मुलाबले के लिए मजबूत करना है. वैसे इससे सबसे ज्यादा नाराज फ्रांस हुआ है क्योंकि ऑस्ट्रेलिया ये पनडुब्बी फ्रांस से खरीदने वाला था. लेकिन ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका दोनों ने फ्रांस को बताए बिना ये डील कर ली. जिससे फ्रांस को 90 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है. गुस्साए फ्रांस ने अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से अपने राजदूत वापिस बुला लिया और ब्रिटेन के साथ होने वाली विदेश मंत्री स्तर की बैठक रद्द कर दी. फ्रांस आर्थिक नुकसान से तिलमिलाया हुआ है लेकिन AUKUS के गठन ने भारत की चिंताएं भी बढ़ा दी है. AUKUS के गठन से क्वाड का महत्व कम हो सकता है. चीन का मुकाबला करने के लिए ही भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका ने मिलकर क्वाड बनाया था. क्वाड की बैठक में भाग लेने के लिए ही 24 सितंबर को पीएम मोदी अमेरिका जा रहे है. लेकिन क्वाड बैठक से ठीक पहले AUKUS का ऐलान इस बात की चिंता बढ़ा रहा है कि क्या अब क्वाड का महत्व कम हो जाएगा और भारत जैसे महत्वपूर्ण प्लेयर को AUKUS जैसे गठबंधन का हिस्सा क्यों नहीं बनाया गया.
अमेरिका और रूस के बीच तालमेल
अमेरिका का इतिहास रहा है कि वो केवल अपने हितों को साधता है. अमेरिका की विदेश नीति पूरी तरह से अमेरिका फर्स्ट पर निर्भर करती है. 2008 में भारत अमेरिका में न्यूक्लियर डील के बाद से इंडिया यूएसए के रिश्ते मजबूत हुए है. USSR के विघटन के बाद से भारत ने अमेरिका को लेकर नीति काफी हद तक बदल ही दी थी. और पिछले कुछ सालों में तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत अमेरिका का मजबूत पार्टनर बनकर उभरा है, लेकिन बावजूद इसके अमेरिका ने अफगानिस्तान मामले में भारत के हितों का ध्यान नहीं रखा. भारत-अमेरिका की नजदीकी की वजह से रूस ने भी चीन के बात को महत्व दिया. और चीन-पाकिस्तान के विरोध की वजह से भारत को ट्राइका प्लस का सदस्य नहीं बनाया. जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका कमजोर और थके हुए मुल्क के रूप में सामने आया है. ऐसे में भारत को इस बात का ध्यान रखना होगा. कि हमारे सबसे पुराने दोस्त रूस के साथ संबंधों में दूरियां न आए.
इजरायल और मुस्लिम दुनिया में तालमेल
जब तक डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) अमेरिका के राष्ट्रपति थे. तो अमेरिका इजरायल संबंध बेहतर थे. डोनाल्ड ट्रंप ने ही येरुशलम में दूतावास खोलने का फैसला लिया था. लेकिन जो बाइडन के सत्ता में आने के बाद इजरायल में भी सत्ता परिवर्तन हुआ. नफताली बेनेट इजरायल के प्रधानमंत्री बने. अमेरिका में बाइडन और नफताली बेनेट की मुलाकात भी हुई लेकिन कोई खास उत्साह नहीं दिखा. जब से बाइडन प्रशासन ने येरुशलम में फिर से काउंसलेट खोलने का फैसला लिया है तब से इजरायल तमतमाया हुआ है. इधर इजरायल का चीन के साथ व्यापार तेजी से बढ़ रहा है. और चीन के साथ उसका कोई सीधा विवाद भी नहीं है लिहाजा भारत को ये ध्यान रखना होगा कि हमारे महत्वपूर्ण इंटेलीजेंस पार्टनर के चीन के साथ रिश्ते किस हद तक हो. मुस्लिम दुनिया के इजरायल के साथ संबंध अच्छे नहीं है. लेकिन ईरान से लेकर यूएई जैसे तमाम मुस्लिम देश भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. ऐसे में भारत को इजरायल और मुस्लिम दुनिया के साथ तालमेल भी रखना है. न इजरायल से दूरी बनानी है और नही मुस्लिम दुनिया के देशों से संबंधों में कोई कमी आने देनी है.
अफगानिस्तान मामले में रणनीति
अब तक अमेरिका और रूस ही दुनियाभर की पंचायती करते आए है. लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद के हालातों में इन दोनों देशों से भारत को कोई खास मदद नहीं मिली. अमेरिका ने अफगानिस्तान मामले में जो क्वाड बनाया उसका भारत को सदस्य नहीं बनाया. कतर के दोहा में तालिबान के साथ समझौते में भी भारत के हितों की रक्षा के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया. भारत ने अफगानिस्तान में पिछले 20 सालों में 22 हजार करोड़ का निवेश किया है. सिर्फ अमेरिका ही नहीं. अफगानिस्तान मामले में रूस से भी भारत को निराशा मिली. जब अमेरिका बेबस नजर आया तो रूस ने ट्राइका का गठन किया. उसमें भी भारत को सदस्य नहीं बनाया. बाद में ट्राइका का विस्तार करते हुए ट्राइका प्लस में ईरान और पाकिस्तान को जगह दी लेकिन भारत को जगह नहीं दी. जिसके बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिका से लेकर रूस और कतर तक की यात्राएं की. कतर में बैक चैनल डिप्लोमेसी भी चली. कुल मिलाकर भारत अपने दम पर अफगानिस्तान में अपने हितों की रक्षा में जुटा है. कामयाब कितना होगा, ये तो आने वाले वक्त में ही पता चल पाएगा.
फ्रांस की भारत के लिए अहमियत
1980 के दौर में अमेरिका ने पाकिस्तान को F-16 फाइटर प्लेन देने का फैसला लिया था. जो भारत के लिए खतरे से कम नहीं था. भारत को F-16 से मुकाबले के लिए लड़ाकू विमानों की जरूरत थी. भारत ने इस मामले में रूस से मदद मांगी तो रूस ने मिग विमानों की पेशकश की लेकिन रूस के मिग-23 जैसे विमान अमेरिका के F-16 के सामने नहीं टिक पाते. तब फ्रांस ने मिराज-2000 का भारत को ऑफर दिया था. फ्रांस ने 1982 में मिराज-2000 को अपनी एयरफोर्स में शामिल किया था और इसके एक साल बाद 1983 में ही इसे भारतीय एयरफोर्स में शामिल करने की अनुमति दे दी. फ्रांस भारत के लिए हमेशा से बड़ा डिफेंस पार्टनर रहा है. राफेल जैसे अत्याधुनिक विमान भी हम फ्रांस से ही खरीद रहे हैं.
AUKUS में पनडुब्बी डील से गुस्साए फ्रांस ने अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से राजदूत वापिस बुलाने के फैसले के ठीक एक दिन बाद भारत को लेकर बड़ा बयान दिया. फ्रांस ने कहा कि हम भारत के साथ संबंधों की एक बहुआयामी व्यवस्था खड़ी करेंगे. फ्रांस भारत का सिर्फ डिफेंस पार्टनर ही नहीं है. भारत और फ्रांस ने मिलकर सोलर अलायंस भी बनाया है. जो आने वाले वक्त में वैश्विक स्तर पर बड़ा संगठन बन सकता है. फ्रांस आतंकवाद के मुद्दे पर भी पाकिस्तान के खिलाफ हमेशा भारत का साथ देता आया है. लोकतांत्रिक मूल्यों का पक्षधर और आतंकवाद के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस की नीति पर चलने वाला फ्रांस आने वाले वक्त में भारत का महत्वपूर्ण सहयोगी बन सकता है. ध्यान रहे, आतंकवाद और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ फ्रांस के फैसलों की वजह से पिछले कुछ वक्त में फ्रांस और पाकिस्तान के रिश्ते काफी खराब हो चुके है.
आज भी प्रासंगिक है मजबूत गुटनिरपेक्ष नीति
भारत आजादी के बाद से गुटनिरपेक्षता का पक्षधर रहा है. अलग अलग दौर में भारत के अलग अलग पक्षों के साथ संबंधों में घनिष्ठता या कमी आती रही है लेकिन भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति को कभी नहीं छोड़ा. 1977 में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी लेकिन तब जनता पार्टी की सरकार में भी भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति को मजबूती से आगे बढ़ाया. आज के वक्त में जिस तरह से दुनिया के हालात तेजी से बदल रहे है. तब भी गुटनिरपेक्षता की नीति ही हमारा सबसे बड़ा हथियार है. हमारे अमेरिका के साथ पिछले कुछ वक्त में अच्छे संबंध है. लेकिन अमेरिका के दबाव में आए बिना भारत रूस से S-400 मिसाइल सिस्टम खरीद रहा है. और हाल ही में रूस ने ये भी कहा था कि S-500 का पहला खरीददार भी भारत ही बनेगा. भारत क्वाड जैसे राजनीतिक मंच का सदस्य तो बनता है. लेकिन AUKUS जैसे किसी भी मिलिट्री अलाइंस का सदस्य बनकर पूरी तरह से अमेरिका की गोद में नहीं बैठ रहा है. चीन के अमेरिका के साथ कितने भी खराब संबंध हो. लेकिन चीन के प्रभुत्व वाले SCO समिट में भारत पूरी मजबूती से भागीदारी निभाता है. चीन के आक्रामक रवैये और पाकिस्तान की नापाक साजिशों से उभरते खतरे के बीच भारत तेजी से अपनी सैन्य ताकत बढ़ा रहा है. अपना एंटी मिसाइल सिस्टम मजबूत कर रहा है. तीनों सेनाओं का संयुक्त थियेटर कमान बनाने का काम तेजी से हो रहा है. इंटेलीजेंस को मजबूत करने के लिए नेशनल इंटेलीजेंस ग्रिड को भी सक्रिय करने का काम तेजी से हो रहा है. भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ विपिन रावत पद संभालने के बाद पहली विदेश यात्रा पर रूस जा रहे है. तो वहां से लौटने के बाद अगला दौरा अमेरिका का करेंगे. यानि किसी एक गुट के दबाव में आने की बजाय भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति और इंडिया फर्स्ट को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ रहा है.
भारत सिर्फ सैन्य और सुरक्षा मामलों में ही नहीं, बल्कि आर्थिक संबंधों में भी किसी एक पर निर्भरता नहीं रख रहा है. अमेरिका के दबाव के बावजूद ईरान में चाहबार पोर्ट विकसित कर रहा है. हिंद महासागर में चीन के मुकाबले में मालदीव जैसे देशों को अपने साथ रखने के लिए 3500 करोड़ रूपए से ज्यादा का निवेश कर रहा है. इससे विदेश संबंध भी मजबूत होंगे. तो इस प्रोजेक्ट को पूरा करने का काम भी महाराष्ट्र की कंपनी AFCONS के पास है. जिससे भारतीय कंपनी को फायदा भी होगा.
कुल मिलाकर भारत के लिए ये परीक्षा की घड़ी है. दुनिया कूटनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रही है. कई दुश्मन दोस्त बन रहे है. तो कई पुराने दोस्तों के रिश्तों में खटास आ रही है. सुपर पावर कमजोर दिख रहे है. तो कमजोर देशों की ताकत और रणनीतिक मौजदूगी महत्वपूर्ण हो रही है. दुनिया का हर देश अपने हितों की रक्षा में लगा हुआ है. ऐसे में जरूरी है भारत को भी अपने हितों की रक्षा अपने बूते पर करनी होगी. साथ ही वैश्विक कूटनीति में हमें दोस्तों की संख्या भी बढ़ानी है. लेकिन अगले एक साल तक हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा.