



Gaya: श्राद्ध पक्ष के दौरान देशभर से लोग पिंडदान और तर्पण के लिए गया पहुंच रहे हैं. गया तीर्थ की पवित्र भूमि पर बहती है फल्गु नदी, जिसका प्रवाह युगों-युगों से मृतात्माओं को मोक्ष का मार्ग दिखा रहा है. हालांकि गया तीर्थ में इस नदी का प्रवाह सबसे कम है. कहते हैं कि नदी श्रापित है इसलिए इसमें जल कम और रेत ही ज्यादा दिखती है. लोग इसकी गोद में बैठकर रेत हटाते हैं, थोड़ा जल मिलता है उसी से तर्पण करते हैं.
पौराणिक महत्व की नदी है फल्गु
फल्गु महज नदी नहीं, यह भारत की प्राचीन और पौराणिक सभ्यता की प्रतीक है. भौगोलिक आधार पर बात करें तो फल्गु नदी झारखण्ड के पलामू जिले से निकली है और जहानाबाद जिले में जाकर अपना प्रवाह पूरा करती है. 235 किमी का यह सफर पूरा करके फल्गु देवनदी गंगा में मिल जाती है.
ये ठीक वैसे ही है जैसे अमृत की दो धाराएं आपस में मिल जाएं. गंगा में फल्गु का मिलना गंगा की नहीं फल्गु की महानता है, जिससे गंगा भी धन्य होती है. इसकी पौराणिक वजह ये है कि जैसे गंगा विष्णु पदी है, यानी श्रीहरि के चरणों से निकली है तो फल्गु उनके माथे से टपकी पसीने की बूंद है.
पुराणों की ये गाथाएं कितनी सही, कितनी गलत क्या मालूम, लेकिन एक बात तो तय है धर्म और ईमान के लिए जब भी कोई प्रयास ऊंचे स्तर का होगा तो समय सीमा से परे जाकर उसे ऐसी ही मान्यता दी जाएगी. फल्गु नदी इन्हीं मान्यताओं का उदाहरण है.
फल्गु नदी ही नहीं जीवन दर्शन है
फल्गु नदी के लिए ये उदाहरण सिर्फ पौराणिक नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक कालखंड में भी इस नदी को बड़ा महत्व मिला है. इसकी धाराओं से बौद्ध काल का स्वर्णिम इतिहास भी जुड़ा हुआ है. ऐतिहासिक दस्तावेज कहते हैं कि फल्गु नदी के किनारे गया नाम से ही एक घाट था.
इसी घाट के किनारे श्रेणिक स्थविर को महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था. नदी का निर्माण कई धाराओं से होता है. इसमें भी मुख्य धारा का नाम निरंजना है. अगर फल्गु शरीर है तो निरंजना उसकी आत्मा है. जीव और आत्मा के इतने स्पष्ट दर्शन गया में ही होते हैं. जहां एक मौन-मूक नदी ही आपको बताती है तुम जिनसे मिल कर बने हो तुम्हारा सब उनमें ही मिल जाएगा. फिर फल्गु जिस तरह जाकर गंगा में विलीन होती है वह कहती है कि हर आत्मा को इसी तरह परमसत्ता से एकाकार करना है.
ऋषि वाल्मीकि और व्यास मुनि इस मिलने-बिछड़ने को देखते तो कहते कि धन्य हैं ये आंखें जो नश्वर को अनश्वर बन जाते हुए देख पा रही हैं.
इसलिए देवी सीता ने दिया श्राप
बल्कि व्यास मुनि ने वायु पुराण में तो लिखा ही है कि फल्गु भगवान विष्णु की छवि है. जैसे लीलाप्रिय के दर्शन मात्र से मोक्ष मिलता है, फल्गु के जल से तर्पण मृतात्माओं को वही गति प्रदान करता है. लेकिन, भगवान विष्णु की इस प्रिया से लक्ष्मी स्वरूपा सीता नाराज हो गई थीं.
दरअसल, श्रीराम अपने चक्रवर्ती पिता का श्राद्ध उनकी कीर्ति के अनुसार करना चाहते थे, लेकिन दशरथ ने छाया रूप में अभिलाषा जताई कि पुण्य तिथि और मुहूर्त में ही मेरा श्राद्ध कर दो. मां सीता ने ऐसा ही किया, लेकिन श्रीराम के पूछने पर डरी-सकुचाई फल्गु मौन रही. तब देवी सीता ने श्राप दिया कि पिंडदान के इस प्रश्न पर तुम ऐसे मौन साध गई, जैसे कि यहां हो नहीं, तो जाओ आज से यही तुम्हारा सत्य होगा. तुम बहोगी जरूर, लेकिन बिना जल के.
कहते हैं कि तबसे फल्गु बह तो रही है, लेकिन श्राप लेकर. गंगा की तरह वो सारे पाप धो लेती है. युगों से न जाने कितने मनों का मैल उसमें रेत की तरह जाकर बैठ गया है. लेकिन है तो वो एक नदी ही न. वह बह रही है, संस्कृति और सभ्यता की लहर बन कर, चिरकाल से अनिश्चित काल तक… अनवरत और लगातार.